Sex अपराध पर दिल्ली हाईकोर्ट सख्त, केंद्र को 6 महीने में फैसला लेने का निर्देश
बुधवार को दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह भारतीय दंड संहिता (IPC) की जगह लेने वाले भारतीय न्याय संहिता (BNS) से अप्राकृतिक यौन संबंध और समलैंगिकता से जुड़े दंडात्मक प्रावधानों को हटाने के खिलाफ दायर जनहित याचिका को एक प्रतिनिधित्व के रूप में माने।
कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश मनमोहन और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की पीठ ने केंद्र सरकार से कहा कि वह इस मामले पर जल्द से जल्द निर्णय ले, और इसे संभवतः छह महीने के भीतर पूरा किया जाए।

दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह भारतीय न्याय संहिता (BNS) से अप्राकृतिक यौन संबंध और समलैंगिकता से जुड़े दंडात्मक प्रावधानों को हटाने के खिलाफ दायर याचिका पर विचार करे। कोर्ट ने इस मामले की गंभीरता पर जोर देते हुए सरकार से कहा कि वह छह महीने के भीतर निर्णय ले। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया है कि इन प्रावधानों को हटाने से LGBTQ समुदाय पर असमान रूप से प्रभाव पड़ता है।
पीठ ने यह आदेश केंद्रीय सरकारी स्थायी वकील अनुराग अहलूवालिया की ओर से प्रस्तुत किए जाने के बाद दिया, जिसमें कहा गया कि यह मुद्दा विचाराधीन है और इस पर समग्र दृष्टिकोण से निर्णय लेने के लिए समय की आवश्यकता होगी।
अदालत ने कहा कि किसी अपराध के लिए कानून में खाली स्थान नहीं हो सकता। अगर आज इस प्रकार का कोई अपराध होता है तो क्या होगा? अगर ऐसा खाली स्थान है, तो इस समय के लिए यह अपराध शारीरिक चोट पहुंचाने के प्रावधान के तहत आ सकता है।
कोर्ट ने कहा, “लोगों की यह मांग नहीं थी कि सहमति से किए गए (अप्राकृतिक) यौन संबंध को दंडनीय बनाया जाए। आप ने तो गैर-सहमति वाले (अप्राकृतिक) यौन संबंध को भी गैर-दंडनीय बना दिया। मान लीजिए, आज अदालत के बाहर ऐसा कुछ होता है, तो क्या हमें सबको अपनी आंखें मूंद लेनी चाहिए क्योंकि यह अब कानूनी दंड के दायरे में नहीं आता?”
कोर्ट ने इस मामले की तात्कालिकता को रेखांकित किया और कहा कि सरकार को इसे समझना चाहिए।
“अगर इसके लिए एक अध्यादेश की आवश्यकता हो, तो वह भी लाया जा सकता है। हम भी खुलकर सोच रहे हैं।”